भारतीय चिंतन की सबसे अद्भुत बात यह है कि यहाँ विचार सिर्फ कहे नहीं गए, परखे भी गए।
यह भूमि केवल कथनों की नहीं, शास्त्रार्थ की भूमि है—जहाँ कोई भी मत अंतिम नहीं माना जाता, जब तक कि वह तर्क, अनुभव और प्रयोग—तीनों की कसौटी पर खरा न उतर जाए। इसलिए भारत में गूढ़ किंवदंतियाँ, कहावतें और मुहावरे सिर्फ लोकप्रिय नहीं थे; उनकी तार्किक व्याख्या भी लोक-जीवन में स्वीकार्य और समझी हुई थी। प्रतीक और तर्क दोनों को समान सम्मान मिला, पर दोनों की सीमाएँ भी समझी गईं।
इसी बुनियादी पृष्ठभूमि में यह प्रश्न उठाना बिल्कुल उचित है कि प्रेरक संदेशों में प्रयुक्त प्रतीक—जैसे उबलते पानी की परछाई—क्या तार्किक कसौटी पर स्वीकार्य हैं? और क्या ऐसे प्रतीक भविष्य में संदेश-सृजन की गलत परंपरा को जन्म दे सकते हैं?
दरअसल, किसी भी प्रतीक का उद्देश्य सत्य को प्रतिस्थापित करना नहीं, बल्कि उस तक पहुँचने का दृश्य मार्ग निर्मित करना होता है। परंतु प्रतीक तभी सार्थक होता है, जब वह तर्क का पूरक बने—प्रतिस्थापन नहीं। उबलते पानी की परछाई वाला उदाहरण, यदि शाब्दिक रूप से परखा जाए, तो उसमें कोई भी वास्तविक प्रयोज्यता नहीं दिखती; कोई व्यक्ति स्वभावतः उबलते पानी में अपना प्रतिबिंब नहीं देखता। किंतु यदि यही उदाहरण मन की अशांति के लिए एक दृश्य रूपक बनकर सामने आता है, तो वह मनोवैज्ञानिक सत्य की ओर संकेत करता है—कि व्यग्र अवस्था में विवेक का प्रतिबिंब धुँधला पड़ जाता है।
यहीं पर समस्या और समाधान दोनों मौजूद हैं।
समस्या यह कि यदि प्रतीक को ही सत्य मान लिया जाए, तो संदेश हवा-हवाई हो जाता है।
समाधान यह कि प्रतीक को मात्र संकेत माना जाए और तर्क को केंद्र में रखा जाए।
भारतीय शास्त्रार्थ की परंपरा कहती है कि—
“यथार्थ तक पहुँचने के लिए तर्क आवश्यक है, और तर्क तक पहुँचने के लिए संकेत।”
प्रतीकात्मकता भाव जगाती है;
तार्किकता समझ बनाती है।
दोनों का समंजन तभी संभव है जब प्रतीक भावना तक सीमित रहे और तर्क निर्णय का आधार बने।
इसलिए प्रेरक संदेशों के मामले में भी एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।
यदि संदेश में प्रयुक्त रूपक यह एहसास दिलाता है कि समस्या समाधान की दिशा में पहली चिंता “मन की स्पष्टता” है, तो यह एक स्वीकार्य और उपयोगी संकेत है। लेकिन यदि उसी रूपक को बिना विवेचना के सर्वमान्य सत्य मान लिया जाए, तो विचार-सृष्टि में भ्रम फैल सकता है। संदेश-सृजन की सही परंपरा वह है जो प्रतीक को भावनात्मक संदर्भ में रखे और तर्क को व्यावहारिक संदर्भ में।
अतः प्रतीक और तर्क का संघर्ष नहीं, समंजन ही भारतीय विचार की सबसे बड़ी शक्ति है।
प्रतीक मन को स्पर्श करता है, तर्क बुद्धि को।
और जब दोनों मिलकर रास्ता दिखाते हैं, तभी संदेश केवल आकर्षक नहीं, प्रामाणिक भी बनता है।
यही वह दृष्टिकोण है जो संदेह को भी मिटाता है और परंपरा को भी सही दिशा देता है—
कि संदेश भावनात्मक झोंक में नहीं, बल्कि सूक्ष्मावलोकन और विवेक के आधार पर रचा जाए, ताकि विचार की धरोहर भ्रम नहीं, बुद्धि का विस्तार बने।