मुक्तक एक
बुलाकर पास में हमको, लिस्ट लंबी थमाते हो।
हमारी जेब का पैसा, बिना सोचे उड़ाते हो।
कभी चूड़ी कभी कंगन, कभी तो हार सोने का
जिद्द कर खूब लेने की, हमें यूं क्यों सताते हो।

मुक्तक दो
सुनी जो बात कानों से,नहीं सबको बताते हो
बुराई देख कर भी तुम,नहीं उसको हटाते हो।
जहां में देखना फिर कल,हमारे साथ जो होगा
उसी का बीज प्यारे तुम यहां पर क्यों उगाते हो।

मुक्तक तीन
सजा है रंग फाल्गुनी,नहीं पर पास आते हो
हमें भी खेलने होली,नहीं तुम घर बुलाते हो।
हरा पीला गुलाबी रंग गालों पर लगा कर तुम
बढी जो दूरियां दिल की,नहीं क्यों अब मिटाते हो।

प्रस्तुति

रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’मालपुरा
				
 