‘नायक’ जी की कलम

‘नायक’ जी की कलम

मुक्तक

काली घटाएँ उमड़-घुमड़कर, छाएँ नीलगगन में।
घनघोर मचाएँ शोर बिजली, चमकें नीलगगन में।
खत्म हुआ अब कई दिनों से, बारिश का इंतजार।
रिमझिम रिमझिम झड़ी लगी, देखो नीलगगन में।

ताल-तलैया पोखर नदियाँ, झरने निर्झर बहने लगी।
सावन माह हरियाली छाई, सुरभित हवा बहने लगी।
कोयल मोर-पपीहा सरगम, गूंज चहुँ ओर होने लगी।
झरमर-झरमर बरस रही है, उपवन-नाले बहने लगे।

हरे-भरे वन-उपवन-पर्वत, घाटी दर्रे फल-फूल रहे।
खेतों में फसलें उपजाईं, ज्वार ग्वार फल-फूल रहे।
चहुँ ओर हरियाली छाई, बीता बारिश का इंतजार।
गांवों में खेती उपजाऊ, किसान भी फल-फूल रहे।

अतिवृष्टि जब हो जाती, फसलें सारी गल जाती हैं।
चारा दाना कुछ ना होता, आशायें भी गल जाती हैं।
मेहनत पर पानी फिरता, शीश पकड़ रोता रहता।
फिर उठे मेहनत करता, फिर से दाल गल जाती है।

रचयिता

‘नायक’ बाबूलाल ‘नायक’

प्रस्तुति