।।अपनी-अपनी राह।।
।।पिताजी।।
तुम पिता मेरे, तुम ख्वाब मेरे, तुम ही हो भाग्य विधाता।
मैं नित उठकर, तुम्हरे चरणों में अपना शीश झुकाता।।

तुम ज्ञान मेरे, तुम ध्यान मेरे, तुमसे है जन्म जन्म का नाता।
मैं तुम्हें देख-देखकर, मन ही मन मुस्काता।।

तुम मान मेरे, सम्मान मेरे, तुम ही हो गुणों के दाता।
मैं तुम्हरे गुणों को देख-देखकर, और गुणी स्वयं को पाता।
तुम आन मेरी, तुम शान मेरी, तुम ही धन के दाता।
मैं तुम ही से सीखकर, लिखता अपने कर्मों का खाता।।
तुमने सन्तान को हाथ पकड़ चलना, बोलना सिखाया।
सब आपकी हिम्मत देख -देखकर, अपनी मंजिल चढ़ पाते।

तुम आसमान से ऊँचे इतने कि भीष्म पितामह कहलाते।
मैं तुम्हारी दुनिया और तुम मेरे श्रीकृष्ण बन जाते।।

कवि मुकेश कुमावत मंगल टोंक।
मेरा बचपन बीता पिता के संग
जन्म जब मेरा पिता के घर,
पिता का सीना हुआ छप्पन।
छा गया था खुशियों का रंग,
मेरा बचपन बीता पिता के संग।
पिता हैं मेरे सबसे प्रिय मीत,
सुनाते मुझको मीठे-मीठे गीत।
पिता तो दुनिया में सब कुछ है,
वह करते मुझसे बहुत प्रीत।
पिता ने मुझको दिलाई शिक्षा,
आचरण से ली मैंने खूब दीक्षा।
उन्होंने मुझे नही फैलाने दिया,
कभी किसी के आगे हाथ।

पिता मेरी आन-बान-शान,
उनका गज़ब का है समर्पण,
त्याग, संयम, धैर्य की मूरत,
करता हूं हर खुशी मैं अर्पण।
चल उनके नक्शे कदम पर,
चढ़ा शालीनता का भव्य रंग।
मन झूमे याद कर कर प्रसंग,
बचपन बीता मेरा पिता के संग।
रचयिता
हंसराज हंस
टोंक राजस्थान।