संस्मरण
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संस्मरण

भूमिका

यह संस्मरण केवल पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति बाल-सुलभ स्नेह का चित्रण नहीं है, बल्कि एक शोधार्थी की उस संवेदनशील दृष्टि का प्रतिबिंब है जो इतिहास को भावनाओं, स्मृतियों और मानवीय मूल्यों के माध्यम से समझना चाहती है। प्रस्तुत आलेख में नेहरू जी का व्यक्तित्व किसी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि बच्चों के आत्मविश्वास, शिक्षा और मानवीय संस्कारों के संरक्षक के रूप में सामने आता है। दादाजी की व्यक्तिगत स्मृतियों के आधार पर तैयार यह वर्णन नेहरू जी के चरित्र की उस कोमलता को उजागर करता है, जिसने उन्हें ‘चाचा नेहरू’ के रूप में पीढ़ियों के हृदयों में बसाया। स्कूल परिसर की जीवंत तस्वीरें, बच्चों से उनका आत्मीय संवाद, और शिक्षा को राष्ट्र-निर्माण का आधार मानने की उनकी दृष्टि—यह सब मिलकर संस्मरण को शोधार्थीय गहराई और भावनात्मक ऊष्मा दोनों प्रदान करता है। यह भूमिका उस प्रयास को सलाम करती है, जिसके माध्यम से इतिहास केवल पढ़ा नहीं जाता, बल्कि महसूस किया जाता है।

चाचा नेहरू पर विस्तृत संस्मरण

इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह नहीं होता, वह उन भावनाओं का भी दर्पण है जो पीढ़ियों तक हृदयों में जिंदा रहती हैं। भारत की स्वतंत्रता यात्रा के बाद जब राष्ट्र नया स्वरूप ले रहा था, उसी समय एक ऐसे व्यक्तित्व का उदय हुआ, जिसने राजनीति को केवल शासन का माध्यम नहीं, बल्कि मानवता, शिक्षा और संस्कार का आधार माना। वह व्यक्तित्व थे—पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें हम सब प्यार से चाचा नेहरू कहते हैं।

मेरे दादाजी अक्सर कहा करते थे कि नेहरू जी में एक विशेष आकर्षण था। वे जहाँ भी जाते, बच्चे उनके चारों ओर ऐसे इकट्ठे हो जाते मानो कोई अपनी माँ की गोद की ओर खिंचा चला जाता है। उनके चेहरे पर स्नेह की रोशनी थी, उनकी मुस्कान किसी आश्वासन-भरी धूप की तरह गर्म थी, और उनके कोट पर खिला लाल गुलाब मानो हृदय में बसे प्रेम का प्रतीक था।

दादाजी ने एक बार उनकी एक सभा में भाग लिया था। यह कोई सामान्य सभा नहीं थी। यह वह दिन था जब पूरा विद्यालय उत्साह से भर गया था। छात्रों ने रंगोलियाँ बनाई थीं, दीवारों पर फूलों की लड़ियाँ सजाई थीं, और प्रार्थना सभा में बच्चों की मधुर आवाजें गूंज रही थीं। सबके हृदय में एक ही प्रत्याशा थी—चाचा नेहरू आएँगे।

दादाजी बताते हैं कि जैसे ही नेहरू जी विद्यालय प्रांगण में प्रवेश किए, कोई बड़ा शोर नहीं हुआ, परन्तु सभी के मनों पर गहरा प्रभाव छा गया। बच्चे उनके चारों ओर बाग़ में खिले फूलों की तरह बिखर गए। नेहरू जी झुककर बच्चों से बात करते थे—जैसे कोई शिक्षक नहीं, बल्कि एक सखा, एक मित्र, जो उनकी भाषा, उनकी भावनाएँ, उनके सपने समझता हो।

एक छोटी बच्ची, जिसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, ने धीरे से पूछा—
“चाचा नेहरू, क्या हम सच में बड़े होकर देश के काम आ सकते हैं?”

नेहरू जी ने उस बच्ची को गोद में बिठाया।
उस पल वहाँ कोई धर्म, कोई हैसियत, कोई पद नहीं था—
बस स्नेह था।

उन्होंने कोमल स्वर में कहा—
“देश कोई दूर की जगह नहीं है, बच्ची।
देश वहीं है जहाँ तुम खड़े हो।
जब तुम सच्चाई से जीती हो,
जब तुम प्रेम देती हो,
जब तुम सीखते और आगे बढ़ते हो—
तभी देश आगे बढ़ता है।”

उनके शब्दों में शक्ति थी, विश्वास था, और सबसे बढ़कर सरलता थी—ऐसी सरलता, जो सीधे मन में उतर जाए।

नेहरू जी बच्चों से कहते थे—
“तुम्हारे भीतर एक सुबह है।
इसे अंधकार मत होने देना।”

वे मानते थे कि बच्चा कोई मिट्टी का पुतला नहीं, जिसे इच्छानुसार गढ़ दिया जाए,
बल्कि वह बीज है, जिसे सही वातावरण, प्यार और शिक्षा मिले, तो वह वटवृक्ष बनकर देश को छाया दे सकता है।

इसीलिए उन्होंने बच्चों के लिए विद्यालयों, पुस्तकालयों, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं और संस्थानों का निर्माण कराया।
उनका सपना था कि भारत केवल स्वतंत्र ही नहीं, ज्ञानवान और संवेदनशील भी बने।

इसी स्नेह के कारण उनके जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
यह केवल कैलेंडर की एक तारीख नहीं, बल्कि एक विचार का उत्सव है—
कि राष्ट्र की प्रगति का सबसे सुंदर आधार उसके बच्चे हैं।

आज भी जब एक विद्यालय की घंटी बजती है,
जब बैग लेकर बच्चे हँसते-खेलते स्कूल जाते हैं,
जब शिक्षक धैर्य के साथ उन्हें प्रेम से पढ़ाते हैं,
जब बाधा आने पर कोई बच्चा पुनः प्रयास कर आगे बढ़ता है—
तब यह केवल शिक्षा नहीं,
राष्ट्र निर्माण का कार्य चलता है।

और इन सबके बीच कहीं,
चाचा नेहरू की मुस्कान अब भी तैरती है—
धीमी, कोमल और स्नेह से भरी।

आज उनकी तस्वीर किसी दीवार पर लगी दिखाई देती है,
पर उनकी आत्मा हर उस जगह जीवित है
जहाँ बच्चे सपने देखते हैं।
चाचा नेहरू ने हमें यह सिखाया कि—बच्चों को प्रेम दो, विश्वास दो, अवसर दो।
क्योंकि बच्चे भविष्य नहीं हैं—वे वर्तमान हैं,और वर्तमान ही भविष्य को आकार देता है।

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