मनहरण घनाक्षरी
पेड़ लगे चारों ओर, आये बीता वह दौर,
छाये फिर हरियाली, भू का श्रृंगार हो।
श्रृंगार हो धरती का, झरने चारों ओर हो,
फसलें खिलें खेतों में, ऐसा हर बार हो।
हर बार हो शांति ही, न शोर का निशान हो,
सब यहाँ फलें फूले, सुखी ये संसार हो।
संसार हो जहाँ मिले, चारों ओर शुद्ध हवा,
हवा में घुले जहर का, भु उपचार हो।
संवेदना
संवेदना मिटी दुनिया से,
अब घोर अंधेरा छाया है।
नफरत धोख़ा और लड़ाई,
ये कलयुग लेकर आया है।
भाई से भाई ही लड़ता,
जब देख सामने जलता है
मानवता का हितकारी भी,
तब हाथ हमेशा मलता है।
प्रेम भावना गायब जग से,
अब डर का देखो साया है
संवेदना मिटी दुनिया से,
अब घोर अंधेरा छाया है।
मोबाइल पर बातें होतीं,
मिलना जुलना बंद हुआ है
प्यार मुहब्बत रिश्ता नाता,
आज गले का फंद हुआ है।
मात-पिता से दूरी काटे,
उनका अपना ही जाया है
संवेदना मिटी दुनिया से,
अब घोर अंधेरा छाया है।
जहर उगा खुद खाता मानव,
पर दोष खुदा को देता है
रोग भरे रग रग में उसके,
पर बनता फिर भी नेता है।
बात विचारें आज सभी हम,
अब क्या खोया क्या पाया है
संवेदना मिटी दुनिया से,
अब घोर अंधेरा छाया है।
पुराना ज़माना
याद हमें है वही जमाना
जिसमें चलता था दो आना।
दो आने की कुल्फी मिलती
खाने पर खुशियां थी खिलती।
भर जाता था पेट बराबर
मस्तिष्क भी हो जाता था तर।
पांच रूपया मजदूरी थी
नहीं कही पर मजबूरी थी।
मिलकर करते थे सब कारज
सोनी लगती थी ये भू रज।
पनघट पर जाती पनिहारी
बात बताती मन की सारी।
जगह जगह ही मेले लगते
उसे देखने रातों जगते।
बैलों की जोड़ी भी लाते
बैच दाम अच्छा ही पाते।
बैलों के थे नाम निराले
हीरा मोती कालू लाले।
आल्हा छंद
हॅंसकर जीने का मिलता है, सुखद सदा जग मे परिणाम
अपने से लगते जन सारे,सहज सभी बनते हैं काम।
कोई काम नहीं दुनिया का,जिसको कर न सके इंसान
ढूॅंढ सको तो मिल जायेगी,इस भू पर हीरों की खान।
।।पीड़ा।।
इंसान वहीं कहलाता जो, हरता है दूजों की पीर
सुख में दुख में रख पाता है,धर कर अपने मन में धीर।
पर पीड़ा को अपनी जाने,सुख दुख में देता है साथ
देश धर्म हित कारज करता,देश ध्वजा लेकर वो हाथ।
रचनाकार
श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’ मालपुरा
पाठ्य उन्नयन और प्रस्तुति


