श्योराज जी की कलमकारी

श्योराज जी की कलमकारी

।।मुक्तक एक।।

सागर देखा प्यासा हमने, मछली देखी प्यासी।
मां बाप रुआंसे देखे, प्रीति दूजों से कासी।
रुपया देखा खूब यहाँ पर, देखी खूब गरीबी,
प्यार देख लिया दुनिया का, देखी है बदमाशी।

।।मुक्तक दो।।

जनाब इतना भी न आसमां में उड़ा कीजिए।
वक्त़ जरूरत पड़े जमीन से भी जुड़ा कीजिए।
चार दिनों की जिंदगी है ये, गुजर जायेगी,
कभी मुस्कुरा हमारी ओर भी मुड़ा कीजिए।

बस एक दूजे से प्यार का इजहार कीजिए।
आगे बढ़ इस दर्दे दिल का उपचार कीजिए।
दुनिया में रिश्ते बड़ी मुश्किल से बनते हैं,
गले लगने से किसी को मत इंकार कीजिए।

।।नशा।।

रोग की जड़ से है हेत,
पर रोगों से परहेज़,
कैसे चलेगा यह,
रोक दिया तो कैसे
फलेगा यह धंधा
बीमारियाँ ठीक करने का।

दारू का धंधा
कभी नहीं पड़ता,
है मंदा,
सुना है इसपे ही
सरकारें चला करती हैं,
बिन इसके,
हाथ मला करती हैं।

बीड़ी सिगरेट,
चिलम तम्बाकू,
गुटखा जर्दा,
हानिकारक है न,
सबके लिए,
फिर क्यों बंद नहीं,
होती बनाने वालों,
सजी दुकानें सारी,
विरोध क्यों नही,
करती जनता,
ये मतधारी।

गांजा अफीम की तो,
बाढ़ सी आ गई है,
नवयुवकों में भी,
ये छा गई है।
कैसी बचेगी,
आने वाली पीढ़ी,
जब आप ही लगा
रहे हो ऐसी सीढी।

समाज को रोगों,
से बचाना है तो,
प्रहार रोगों की जड़ पर,
करना होगा,
वर्ना आगे जुर्माना,
हमें ही भरना होगा।
जड़ है असली नशा,
जो बिगाड़ रहा है,
समाज की दशा।

।।मुक्तक तीन।।

दो रोटी के लाले देखे
निज हाथों में छाले देखे
मात पिता को बाहर करते
उनके हाथों पालें देखे।

सूरज का उजियारा देखा
रोशन ये जग सारा देखा
अंतर में देखा जब मैंने
दीप तले अंधियारा देखा।

।।दोहे।।

लिखी कभी तो वीरता, कभी लिखा श्रृंगार।
हास्य के पुट मे सजा, कवियों का संसार।।

धर्म-कर्म के मायने, लिखता आप विचार।
कवि लेखक बुनता सदा, शब्द सुमन से हार।।

।।दोहे।।

गोवर्धन सब पूजकर, निभा रहे बस रीत।

गौधन तो मारा फिरै, झूठी जग की प्रीत।।

 

बैलों की जोड़ी नहीं, अब हलधर के पास।

कल पुर्जों को पूज कर, पाल रहे बस आस।।

 

गायों को चारा नहीं, न गोचरा भू आज।

बैलों की देखो दशा, जता रहे एतराज।।

 

पाल रहे सब भैंस को, दूध छाछ के काज।

छोड़ रहे है गाय को, अब सड़कों पर आज।।

 

गायों की सुनते नहीं, करें इन्हीं पर राज।

कलयुग आया घोर ये, किस विध मिले सुराज।।

।। तिनके तिनके रिश्ते बनते।।

तिनके तिनके रिश्ते बनते, प्रेम बूंद से भरा घड़ा है।

पर ये मानव बनकर दानव, देखो जग में आज खड़ा है।।

 

कैसै हो रिश्तों का पोषण, जो सबसे नाजुक होते हैं।

अलग-अलग हो इक दूजे से, फिर सच्चे आशिक रोते हैं।

तार तार रिश्तों को करने, मानव ही तो आज अडा़ है।

तिनके तिनके रिश्ते बनते, प्रेम बूंद से भरा घड़ा है।।

 

संस्कार विहीन हुआ ये जग, पर्दा कुछ भी रहा नहीं है।

प्रेम भरी जो नदियाँ बहतीं, उसमें भी बहा नहीं है।

तोड़ हाथ से रिश्ते नाते, आज सभी से अलग पड़ा है।

तिनके तिनके रिश्ते बनते, प्रेम बूंद से भरा घड़ा है।।

 

जिसने पहचाना रिश्तों को, खूब यहाँ पर नाम कमाया।

दीप प्रीत का जला जगत में, उजाला सुबह शाम कमाया।

यह शरीर गंगा-सा निर्मल, हीरे मोती खूब जड़ा है।

तिनके तिनके रिश्ते बनते, प्रेम बूंद से भरा घड़ा है।।

कुंडलिया छंद

चाँदी पहुंची चाँद पर, अब स्वर्ण आसमान।

बचे धरातल पर नहीं, हीरे मोती जान।।

हीरे मोती जान, कोयले है अब काले।

बचे नहीं इंसान, सत्य पर चलने वाले।

मर्यादा कर भंग, दीवार सत की फांदी।

बोल रहा जो झूठ, हुई है उसकी चाँदी।

बाल दिवस

बाल दिवस लगता है प्यारा

सब दिवसों से सजता न्यारा।

नेहरू जी की याद दिलाता।

मास नवंबर में यह आता।।

 

स्कूलों में लगते हैं मेले।

खूब खिलौने बिकते केले।

मस्तिष्क की होती है कसरत

होती पूरी सबकी हसरत।।

 

खेल खेलते मिलकर सारे

लगते सब अम्बर के तारे।

खेल खेल में दौड़ लगाते।

अपने डर को दूर भगाते।।

 

कुर्ता टोपी अरु पाजामा।

पहन सजा है खूब सुदामा।

आँखों पर है चश्मा काला।

फूल जेब पर गुलाब वाला।

 

बच्चे तो बच्चे होते हैं।

दिल के ये सच्चे होते हैं।

प्यार प्रेम की भाषा जानें।

सारे जग को अपना मानें।।

दोहे

जन्म मरण में फासला, पल भर का ही जान।

लुटा हाथ से प्यार बस, दुनिया को पहचान।।

 

यहाँ किरायेदार हैं, हम तुम सारे यार।

फिर क्यों हम सब कर रहे, मालिक-सा व्यवहार।।

 

अब-तक गति हरि काज की, कोई न सका जान।

पाता है नर कर्म से, अपनी खुद पहचान।।

 

होनी को अब-तक नहीं, कोय सका है टाल।

अनहोनी होती नहीं, जब-तक हम हो चाल।।

दोहे

बरस रही बरसात ये, बैरी बनकर आज।

चौपट सारे कर रही, किये कराये काज।।

 

बीज खेत में डालकर, लगा रहा था आस।

बिन मौसम बरसात से, किसान हुआ उदास।।

 

फूट रही नव कोंपलें, पौध बना था बीज।

खेतों में पानी भरा, कृषक रहा अब खीझ।।

 

प्रभु जी दया विचार कर, देना सबका साथ।

गलती अब के माफ कर, धरना सिर पर हाथ।।

मुक्तक

कल्पना के संसार का, हुआ ऐसा चमत्कार है।

कल्पनाओं में खो गया, यह सारा ही संसार है।

वर्तमान को भूल गया,भूत भविष्य को ध्याता है,

जिसका रहा नहीं अब, किसी के भी पास उपचार है।

ग़ज़ल

आदमी ही आदमी से क्यों छल रहा।

सबके सामने अपनी ही वह दल रहा।

 

इतनी देखी है प्राकृतिक आपदाएं।

फिर भी क्यों इंसा ये नहीं संभल रहा।

 

लगा रहा है ढेर बारूद के खुद ही।

खुद ही आज उससे देखो जल रहा।

 

जिस पर आदमी चला रहा है कुल्हाड़ी।

उसी पर ही तो आज तक वह पल रहा।

 

वह गया जमाना प्यार मोहब्बत का।

इक दूजे पर जान लुटाने जो पल रहा।

 

कब मारे उसको मौका अब देख रहा।

आँखों ही आँखों में वह तो खल रहा।

श्योराज बम्बेरवाल ‘सेवक’

मालपुरा