गुरुतर गुरु गुर्जरोदय दर्शन
सूर्य-रश्मि प्रतीक मानव-जीवन दर्शन
किसी भी देश या जाति का अस्तित्व उसकी संस्कृति पर आधारित होता है। संस्कृति के उदय-अस्त से ही राष्ट्र का उत्थान और पतन निर्धारित होता है। किसी देश या जाति का वास्तविक विकास तभी संभव है जब उसका आचरण उसकी अपनी संस्कृति से प्रेरित हो। इस सत्य को स्वीकार किए बिना अखंड भारत या गुर्जर देश की कल्पना अधूरी ही रहेगी।
आज भारत का राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन पश्चिमी प्रभावों की ओर झुकता जा रहा है, जबकि अपनी जड़ों से दूर होकर कोई भी राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। विश्व की सभी पुरानी सभ्यताओं के इतिहास का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि ‘उदान-विसर्ग’, ‘व्यष्टि-समष्टि’, ‘आध्यात्मिकता-भौतिकता’ जैसे महान सिद्धांतों में भारत ने विसर्ग तथा आध्यात्मिकता को प्रमुख क्यों माना—इसका उत्तर सूर्य-उपासना में निहित है।
सूर्य
जगत् की आत्मा
हमारे यहाँ प्रतिदिन की सूर्य-संध्या उपासना में एक मंत्र आता है—
“चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्निः
आद्रा द्यावा पृथ्वी अन्तरिक्षं ॐ सूर्य आत्मा जगस्तस्थुषश्च॥”
यह मंत्र सूर्य को समस्त जगत् की आत्मा बताता है। जिस प्रकार शरीर में स्थित आत्मा सभी इंद्रियों को चेतना, प्रकाश और प्रेरणा देती है, उसी प्रकार सूर्य अपनी सहस्र किरणों द्वारा प्रत्येक देश, समाज और प्रवृत्ति को भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रेरित करता है।
हमारी इंद्रियों में कार्य-शक्ति का मूल स्रोत शरीर में स्थित आत्मा है, परंतु उस आत्मा को भी प्रेरणा सूर्य-मंडल से ही मिलती है।
अगले मंत्र में हिंदू प्रातः-संध्या में प्रार्थना करता है—
“पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतम्,
शृणुयाम शरदः शतम्, प्रभ्रवाम शरदः शतम्…”
अर्थात् सूर्यदेव से प्रार्थना कि हमारी सभी इंद्रियों को सत्य-प्रेरणा प्राप्त हो।
सूर्य की किरणें
भौतिक और आध्यात्मिक ऊर्जा
सूर्य की प्रथम किरण भौतिक संपन्नता एवं आसुरी प्रवृत्ति की उत्पादक कही गई है, जबकि सातवीं किरण दैवी संपत्ति, त्याग, हित और आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरक मानी गई है।
भारतवर्ष, विशेषकर गंगा-यमुना के मध्य का क्षेत्र, भौगोलिक स्थिति के कारण सूर्य की सातवीं किरण से अधिक प्रभावित होता है। यही कारण है कि यहां अवतार, ऋषि-महर्षि, संत-महापुरुष तथा त्याग-प्रधान परंपरा का उदय अधिक होता रहा है।
गुर्जरोदय और सूर्य-दर्शन का संबंध
इतिहास एवं साहित्य में जिस क्षेत्र को गुर्जर देश या गुर्जरात्र कहा गया, वह सूर्य-उपासना से विशेष रूप से जुड़ा रहा है। ‘आर्य’ अर्थात श्रेष्ठ, ‘गुर्जर’ अर्थात ज्ञान-बल से गुरु और ‘शक’ अर्थात शक्तिशाली—ये सभी शब्द सूर्य से उत्पन्न गुणों के प्रतीक हैं।
सूर्य को जगत का आत्मा और जगतगुरु कहा गया है। इसलिए सूर्योदय और गुर्जरोदय दोनों शब्द समानार्थक प्रतीत होते हैं—अर्थात् प्रकाश, ऊर्जा, धर्म और शक्ति का जागरण।
इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि समय के साथ सूर्य-उपासना को छोड़कर मूर्ति-उपासना की ओर झुकाव ने समाज को अनेक संप्रदायों और मतों में बांट दिया। इस विभाजन का परिणाम अखंड भारत के खंड-खंड रूप में दिखाई देता है।
श्री देवनारायण उपासना और सूर्य-परंपरा
मध्यकाल में गुर्जर संस्कृति ने पुनः सूर्य-आधारित उपासना को जीवंत किया। श्री देवनारायण की उपासना—जिसे “ईंटों में श्याम” भी कहा गया—सूर्य-तत्व से प्रेरित थी और इसमें सभी धर्मों एवं जातियों के समन्वय का प्रयास हुआ।
बगड़ावत लोक-कथा में सूर्य-जन्म (सूर्य सप्तमी) और श्री देवनारायण के अवतार को समान अर्थों में वर्णित किया गया है। दोनों में प्रकाश, उर्जा, शक्ति और धर्म का साम्य मिलता है।
भारतवर्ष और आर्य-परंपरा
वर्तमान हिंदुस्तान का प्राचीन नाम भारत है। ऋषभ के पुत्र भारत के नाम पर इस भू-भाग का नाम भारतवर्ष पड़ा। राजा पृथु के नाम पर पृथ्वी का नाम हुआ।
आर्य-संस्कृति के अवशेष आज भी यूरोप, मध्य एशिया, काकेशस, ईरान, हिंदूकुश आदि क्षेत्रों में मिलते हैं। फिनीशिया, बाबुल, सुमेर, मिस्र और चीन तक में आर्य-संस्कृति की झलक दिखाई देती है।
गुर्जर साम्राज्य काल में उज़्बेकिस्तान, जॉर्जिया, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तक गुर्जर जाति की उपस्थिति इसका प्रमाण है।
निष्कर्ष
सूर्य-रश्मि आधारित मानव-जीवन दर्शन
संपूर्ण भूमंडल के सभी मानव-वर्ग सूर्य, अग्नि और चंद्र-वंश से ही उत्पन्न माने गए हैं। गुर्जर परंपरा में इन तीनों वंशों के गुणों का समन्वय दिखाई देता है।
आज भी गुर्जर लोक-संस्कृति में सूर्य-रश्मि-प्रेरित श्री देवनारायण की लीला मानव जीवन को उच्च आदर्श, त्याग, समन्वय, ज्ञान और ऊर्जा की दिशा में प्रेरित करती है।
सूचना स्रोत और रचनाकार
मोहनलाल वर्मा
संपादक, देव चेतना मासिक पत्रिका, जयपुर
पाठ्य उन्नयन और विस्तार व प्रस्तुति



